यूँ तो हर एक शख़्स ही तालिब समर का है ऐसा भी कोई है कि जिसे ग़म शजर का है ये कैसा कारवाँ है कि एक एक गाम पर सब सोचते हैं क्या कोई मौक़ा सफ़र का है ये कैसा आसमाँ है कि जिस की फ़ज़ाओं में एक ख़ौफ़ सा शिकस्तगी-ए-बाल-ओ-पर का है ये कैसा घर है जिस के मकीनों को हर घड़ी धड़का सा एक लर्ज़िश-ए-दीवार-ओ-दर का है आँखों पे तीरगी का तसल्लुत है इस क़दर किरनों पे एहतिमाल फ़रेब-ए-नज़र का है चेहरे का कोई दाग़ दिखाई न दे मुझे ये मोजज़ा अजब मिरे आईना-गर का है था 'मीर-जी' का दौर ग़नीमत कि उन दिनों दस्तार ही का डर था मगर अब तो सर का है ये सारे सिलसिले थे जब आँखों में नूर था अब किस का इंतिज़ार किसी दीदा-वर का है ग़ालिब है अब बुलंद सदा ही दलील पर 'सादिक़' हमारा दौर अजीब शोर-ओ-शर का है