यूँ तो ख़ुद अपने ही साए से भी डर जाते हैं लोग हादसे कैसे भी हों लेकिन गुज़र जाते हैं लोग जब मुझे दुश्वारियों से रू-ब-रू होना पड़ा तब मैं समझा रेज़ा रेज़ा क्यूँ बिखर जाते हैं लोग सिर्फ़ ग़ाज़ा ही नहीं चेहरों की रा'नाई का राज़ शिद्दत-ए-ग़म की तपिश से भी निखर जाते हैं लोग मसअले आ कर लिपट जाते हैं बच्चों की तरह शाम को जब लौट कर दफ़्तर से घर जाते हैं लोग हर 'नफ़स' मर मर के जीते हैं तुझे ऐ ज़िंदगी और जीने की तमन्ना में ही मर जाते हैं लोग