यूँ तोड़ न मुद्दत की शनासाई इधर आ आ जा मिरी रूठी हुई तन्हाई इधर आ मुझ को भी ये लम्हों का सफ़र चाट रहा है मिल बाँट के रो लें ऐ मिरे भाई इधर आ ऐ सैल-ए-रवान-ए-अबदी ज़िंदगी नामी मैं कौन सा पाबंद हूँ हरजाई इधर आ इस निकहत-ओ-रानाई से खाए हैं कई ज़ख़्म ऐ तू कि नहीं निकहत-ओ-रानाई इधर आ आसाब खिंचे जाते हैं अब शाम ओ सहर में होने ही को है मारका-आराई इधर आ सुनता हूँ कि तुझ को भी ज़माने से गिला है मुझ को भी ये दुनिया नहीं रास आई इधर आ मैं राह-नुमाओं में नहीं मान मिरी बात मैं भी हूँ इसी दश्त का सौदाई इधर आ