यूँही नहीं हम बोलते जाते ये अपनी मजबूरी है जूँही कुछ कह चुकते हैं लगता है बात अधूरी है सब अपनी अफ़्वाह बने हैं अस्ल में क्या थे भूल गए जीने की जो सूरत है सो ये भी आज ज़रूरी है दुनिया मेरी ज़िंदगी के दिन कम करती जाती है क्यूँ ख़ून पसीना एक किया है ये मेरी मज़दूरी है अपने बाद ही दुनिया में ठहराव जो आए तो आए जब तक हम ज़िंदा हैं तब तक हर इक दौर उबूरी है ढूँड रहे हैं किस को लोग शिकारी जैसी नज़रों से सफ़-दर-सफ़ मौजूद हूँ मैं तो हर इक सफ़ तो पूरी है सब इक दूसरे को नज़रों से बस ये दिलासा देते हैं हैं तो हम सब पास ही बस अंदर की ये इक दूरी है इतनी सारी आवाज़ों में शायद सुनने वाले को बस इतना ही याद रहेगा मेरी बात ज़रूरी है कोई बहाना मिल जाए तो हाथ नहीं हम आने के देर ये है चल देने में तय्यारी तो पूरी है 'तल्ख़' हमारे होश के आलम का है रंग-ए-सुख़न कुछ और जिस पर वज्द में है इक दुनिया वो तो ग़ैर-शुऊरी है