यूँ ब-ज़ाहिर है गुलसिताँ की तरह ज़ीस्त है मौसम-ए-ख़िज़ाँ की तरह पहले दिल में समाया वो और फिर छा गया गर्द-ए-आसमाँ की तरह वो मुक़द्दस किताब की मानिंद और मैं हाफ़िज़-ए-क़ुर्आं की तरह भूल कर उस को मैं ने की है भूल जिस्म में था मिरे वो जाँ की तरह वो धड़क कर न राज़ सब कह दे दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह क़हक़हे भी लगाओ कुछ नासेह ग़म में हो जाओगे कमाँ की तरह निकला ज़ाहिद भी साथ मय पी कर मैं जवाँ और वो नौजवाँ की तरह उस का हर लम्हा लम्हा है अनमोल और मैं उम्र-ए-राएगाँ की तरह मैं सतह पर हबाब सा लर्ज़ां और वो बहर-ए-बे-कराँ की तरह मैं हिसाब-ओ-किताब से ख़ाइफ़ और वक़्त सर पे इम्तिहाँ की तरह मैं तो तन्हा गुज़र गया 'शाहिद' वो जो गुज़रा तो कारवाँ की तरह