यूँ पौ फटी कि सुब्ह की तौक़ीर घट गई सूरज चढ़ा तो धूप अँधेरों में बट गई हर शाम यूँ लगा कि क़यामत का दिन ढला हर सुब्ह यूँ लगा कि सदी एक कट गई साए में आया मैं तो अजब वाक़िआ' हुआ साए का साथ छोड़ के दीवार हट गई मैं दब गया तो पीस के सुर्मा बना दिया उठा तो अपने ख़ोल में दुनिया सिमट गई शहर-ए-नवा पे पड़ गई उफ़्ताद क्या अजब सन्नाटे बोलने लगे आवाज़ फट गई इतना मचाया शोर बुतों ने दरून-ए-संग पत्थर की मीठी नींद भी आख़िर उचट गई हालाँकि देखना है मिरा और बात और वो आँख सब के साथ मुझे भी डपट गई आख़िर को रंग लाईं मिरी ख़ाकसारियाँ उस की गली की गर्द भी मुझ से लिपट गई गर्दन पे जिस की कितनी पतंगों का ख़ून था मुद्दत हुई पतंग हमारी वो कट गई फिरता है आफ़्ताब लिए कासा-ए-गदाई थी जितनी धूप चाँद सितारों में बट गई महफ़ूज़ जिस में थी तिरी दुज़्दीदा इक नज़र बाज़ार-ए-ज़िंदगी में वही जेब कट गई इस भुक-मरी में इस को ग़नीमत ही जानिए यारों की जूतियों में अगर दाल बट गई तफ़्सील में न जा कि पयम्बर तो मैं न था 'मुज़्तर' मिरी क़मीस थी इक रोज़ फट गई