ज़ब्त-ए-अलम से इश्क़ का चर्चा सिवा हुआ आशोब-रोज़गार दिल-ए-मुब्तला हुआ थी बे-सबातियों में हक़ीक़त मजाज़ की दिल क्यों फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-नक़्श-ए-वफ़ा हुआ जब तक अलग अलग न हों अज्ज़ा पता कहाँ माना कि ज़र्रे ज़र्रे में है वो छुपा हुआ बस ऐ ख़याल-ए-तौबा कि हूँ तिश्ना-काम-ए-ऐश रखा है मेरे सामने साग़र भरा हुआ बे-लुत्फ़ हो न जाए कहीं मर्ग-ए-बे-कसी ये कौन रो रहा है सिरहाने खड़ा हुआ हम उस को एक जुम्बिश-ए-अबरू से पा गए वो राज़ जो ज़बान-ए-अदू से अदा हुआ ऐ जोश-ए-इश्क़ ये तिरी जुरअत से दूर है यूँ जल्वा-गाह में रहे पर्दा पड़ा हुआ दिल वो जगह नहीं कि हक़ीक़त छुपी रहे वहम-ओ-ख़याल बन के वो आए तो क्या हुआ उजलत हुई है याद-ए-सुख़न-हा-ए-बे-शुमार वो मुँह छुपा के बैठ रहे ये बुरा हुआ नासेह के दिल में गर्मी-ए-उल्फ़त कहाँ से हो है इक चराग़ वो भी अज़ल का बुझा हुआ अब हम हैं और कशमकश-ए-मौज-ए-इज़्तिराब कश्ती डुबोई और अलग नाख़ुदा हुआ उफ़ इश्क़-ए-फ़ित्ना-साज़ की जादू-फ़रेबियाँ दिल सा रफ़ीक़ चश्म-ज़दन में जुदा हुआ रक्खी हो दर पे लाश ज़माना हो सोगवार तुम को क़सम है मुँह से न कहना ये क्या हुआ खिंचते हैं वो ख़ुदा न करे पर्दा फ़ाश हो क्या देखता है गोशे में कोई छुपा हुआ बोतल बग़ल में हाथ में साग़र लिए हुए ये कौन आ रहा है इधर झूमता हुआ 'नाज़िश' जफ़ा-ए-चर्ख़ का शिकवा बजा दुरुस्त बे-मेहरी-ए-बुताँ का तुम्हें सामना हुआ