ज़ब्त के क़ाफ़िले फिर भी राहों में थे ख़्वाब आँखों में था आप बाँहों में थे कोई बिछड़ा तो फिर हसबुनल्लह कहा ग़म के मारे तिरी बारगाहों में थे झेलता किस तरह हाकिम-ए-शहर ग़म तीर अश्कों में थे तंज़ आहों में थे इस लिए भी नहीं जीत पाया कभी मात के मशवरे ख़ैर-ख़्वाहों में थे इश्क़ के दर पे वारी गईं अज़्मतें कितने दामन-दरीदा भी शाहों में थे या-ख़ुदा तेरी जन्नत तो अपनी जगह कुछ मज़े भी तो थे जो गुनाहों में थे माँ ने जाते हुए था कहा ख़ैर हो फिर जहाँ भी गए हम पनाहों में थे देखना उन का 'ए'जाज़' है वर्ना हम रौशनी में खड़े रू-सियाहों में थे