जारी है कब से मा'रका ये जिस्म-ओ-जाँ में सर्द सा छुप छुप के कोई मुझ में है मुझ से ही हम-नबर्द सा जाते कहाँ कि ज़ेर-ए-पा था एक बहर-ए-ख़ूँ-किनार उड़ते तो बार-ए-सर बना इक दश्त-ए-लाज-वर्द सा किस चाँदनी की आँख से बिखरी शफ़क़ की रेत में मोती सा ढल के गिर पड़ा शाम के दिल का दर्द सा नाज़ुक लबों की पंखुड़ियाँ थरथरा थरथरा गईं तेज़-रौ बाद-ए-दर्द थी चेहरा था गर्द गर्द सा मेहंदी रची बहार का आँगन ख़ुशी से भर गया मेहमाँ है घर में आज वो चाँद सुनहरा ज़र्द सा देखा तो अहल-ए-शहर सब उस को ही लेने आए थे इक अजनबी जो साथ था राह में कम-नवर्द सा किस दस्त-ए-नाज़ में 'ज़फ़र' आईना-ए-वजूद था बिखरा हूँ काएनात में हर सम्त फ़र्द फ़र्द सा