ज़माने की कोई पर्वा दिवाने से नहीं होती दिवाने की भी तक़लीद इस ज़माने से नहीं होती जहन्नुम से डराते हो ख़ुदा महबूब भी तो है इबादत दिल से होती है डराने से नहीं होती वही इज़्ज़त भी देता है वही ज़िल्लत भी देता है कोई ताक़त घटाने और बढ़ाने से नहीं होती दिलों के रब्त-ए-बाहम से मोहब्बत घटती बढ़ती है ये इक जज़्बा है चाहत आने जाने से नहीं होती गुलिस्ताँ की महक से दिल की शादाबी तो बढ़ती है ये सूरत काग़ज़ी बूटे सजाने से नहीं होती इधर वो नाम लेते हैं उधर आवाज़ आती है मोहब्बत दिल से होती है जताने से नहीं होती फ़क़त दिल हल्का होता है सुकूँ मिलता है कुछ लम्हे कमी ग़म में 'अज़ीम' आँसू बहाने से नहीं होती