ज़मीं की ख़ाक को ख़ाक-ए-शिफ़ा बनाते हुए सिनाँ तक आ गए इंसानियत बचाते हुए पकड़ के रख़्त-ए-सफ़र में रखे हैं कुछ जुगनू चलेंगे शब में यही रास्ता दिखाते हुए जिगर में दर्द उठा तो किसी की याद आई छलक गईं मिरी आँखें ग़ज़ल सुनाते हुए अज़ान-ए-सुब्ह-ए-शहादत में हो गए शामिल चराग़-ए-जज़्बा-ए-नुसरत की लौ बढ़ाते हुए लहू टपकने लगा मेरी चश्म-ए-ग़ैरत से बरहना सर के लिए इक रिदा बनाते हुए दयार-ए-शाम क़यामत में हो गया तब्दील कुछ ऐसे आए हैं ख़ुर्शीद जगमगाते हुए हर एक चेहरा-ए-परवाना-ए-वफ़ा को पढ़ा चराग़-ए-ख़ेमा-ए-अंसार को बुझाते हुए कभी अँधेरों कभी सर्द मौसमों से लड़े हम अपनी जिस्म की पोशाक को जलाते हुए किसी की याद-ए-शहादत का इंइक़ाद किया ज़रा सी देर लगी आसमाँ बुलाते हुए बचा के ले गए गिर्दाब से सफ़ीने को हम अपने ख़ून के सैलाब में नहाते हुए किसी ने ऐसी रह-ए-मुस्तक़ीम दिखलाई सँभल गए कई अफ़राद लड़खड़ाते हुए कोई ख़ुदाई का उस की नहीं है दा'वे-दार ये कौन मर गया ख़ुद को ख़ुदा बताते हुए सुना है मारे गए वो फ़साद में बच्चे हमें सलाम जो करते थे आते-जाते हुए तमाम उस का सर-ए-इब्तिदा हुआ न 'रफ़ी' ज़माने हो गए जो दास्ताँ सुनाते हुए