ज़मीं पर मैं उधर वो आसमाँ पर जागता है अधूरा चाँद मेरे साथ अक्सर जागता है कभी जो हर्फ़-ए-हक़ मेरी ज़बाँ पर जागता है सर-ए-गर्दन मिरी बातिल का ख़ंजर जागता है मिरे अश्जार पर जब भी समर आने लगे तो मिरे दिल में किसी तूफ़ान का डर जागता है मिरे अतराफ़ में इक हू का 'आलम है मुसलसल मगर ये शोर कैसा मेरे अंदर जागता है लगा कर पंख उड़ जाती है नींद आँखों से मेरी तिरा चेहरा जो आँखों में उतर कर जागता है तुम्हारी राह तकते तकते फ़ुर्क़त की शबों में अगर सो जाएँ आँखें तो मिरा दर जागता है किसी भी रुत में तेरा बर्फ़-ए-दिल पिघला नहीं है कि तुझ में मुस्तक़िल कोई दिसम्बर जागता है कोई फ़ुट-पाथ पर सोता है बे-फ़िक्री से 'सागर' कोई फूलों के बिस्तर पर भी शब-भर जागता है