ज़रा सी ख़ाक थे पर आसमाँ उठा लाए बदन के साथ ये आशोब-ए-जाँ उठा लाए तरस रही थीं ये आँखें किसी की सूरत को सो हम भी दश्त में आब-ए-रवाँ उठा लाए यहाँ के लोग तो ख़्वाबों से मुन्हरिफ़ हैं बहुत हम अपने आप को आख़िर कहाँ उठा लाए कहानी में जो किनारों पे चल रहा था कोई हम एक रोज़ उसे दरमियाँ उठा लाए बहुत ही नफ़ा है इस कारोबार में हम को चराग़ छोड़ दिया और धुआँ उठा लाए