ज़र्द पत्तों को दरख़्तों से जुदा होना ही था हम कि दरिया हैं समुंदर की ग़िज़ा होना ही था और कब तक बे-समर रखती ख़िज़ाँ पेड़ों के हाथ रुत बदल जाना थी ये जंगल हरा होना ही था रोकने से कब हवा के नर्म झोंके रुक सके बंद दरवाज़ों को इक दिन नीम-वा होना ही था धूल कब तक झोंके इक दूसरे की आँख में एक दिन तो झूट सच का फ़ैसला होना ही था तेज़ धारों से बिछड़ कर उन किनारों पर 'नजीब' मौज-ए-दरिया की तरह बे-दस्त-ओ-पा होना ही था