ज़िंदगी भी अजब तमाशा है कभी आशा कभी निराशा है जिस में करती हैं गुफ़्तुगू आँखें वो मोहब्बत की एक भाषा है ज़ुल्मत-ए-ग़म है छट ही जाएगी तुझ को ऐ दोस्त क्यों निराशा है क्यों अकड़ता है ऐ दिल-ए-नादाँ तू तो पानी में इक बताशा है इस ज़माने में आदमी 'शाहीन' जैसे इक चलता फिरता लाशा है