कल एक नाक़िद-ए-'ग़ालिब' ने मुझ से ये पूछा कि क़द्र-ए-'ग़ालिब'-ए-मरहूम का सबब क्या है मुझे बताओ कि दीवान-ए-हज़रत-ए-'ग़ालिब' कलाम-ए-पाक है इंजील है कि गीता है सुना है शहर-ए-कराची में एक साहब हैं कलाम उन का भी 'ग़ालिब' से मिलता जुलता है हमारा दोस्त तुफ़ैली भी है बड़ा शाएर अगरचे एक बड़े आदमी का चमचा है तो फिर ये ग़ालिब-ए-मरहूम की ही बरसी क्यूँ मुझे बताओ कि उन में ख़ुसूसियत क्या है न 'ज़ौक़' का है कहीं तज़्किरा न 'मोमिन' का न ज़िक्र-ए-'मीर' कहीं है न यौम-ए-'सौदा' है ये 'फ़ैज़' ओ 'माहिर' ओ 'जोश' ओ 'फ़िराक़' कुछ भी कहें मिरी नज़र में तो 'ग़ालिब' से ज़ौक़ ऊँचा है मुझे तो 'मीर-तक़ी-मीर' से है एक लगाव कि 'मीर' कुछ भी सही शाएरी तो करता है ये रंग लाई है 'ग़ालिब' की पार्टी-बंदी कि आज सारे जहाँ में उसी का चर्चा है ये रूस वाले जो 'ग़ालिब' पे जान देते हैं मिरे ख़याल में इस में भी कोई घपला है कहाँ के ऐसे बड़े आर्टिस्ट थे 'ग़ालिब' ये चंद अहल-ए-अदब का प्रोपेगंडा है अना ने मार दिया वर्ना शाएर अच्छा था नतीजा ये कि जो होना था उस का आधा है लिखी है एक ग़ज़ल की रदीफ़ ''होने तक'' कोई बताए कि क्या ये भी सहव-ए-इम्ला है कभी है महव हसीनों से धौल-धप्पा में कभी किसी का वो सोते में बोसा लेता है जो कह रहे हैं कि 'ग़ालिब' है फ़लसफ़ी शाएर मुझे बताएँ कि बोसे में फ़ल्सफ़ा क्या है जहाँ रक़म की तवक़्क़ो' हुई क़सीदा कहा तुम्हीं कहो कि ये मेआर-ए-शायरी क्या है शराब जाम में है और जाम हाथों में मगर ये रिंद-ए-बला-नोश फिर भी प्यासा है जो शाएरी हो तजम्मुल-हुसैन-ख़ाँ के लिए वो इक तरह की ख़ुशामद है शाएरी क्या है ख़िताब ओ ख़िलअ'त ओ दरबार के लिए उस ने न जाने कितने अमीरों पे जाल डाला है सुना ये है कि वो सूफ़ी भी था वली भी था अब इस के बा'द तो पैग़म्बरी का दर्जा है कहा जो मैं ने कि पढ़िए तो पहले 'ग़ालिब' को तो बोले ख़ाक पढ़ूँ मुद्दआ' तो अन्क़ा है मुझे ख़बर है कि 'ग़ालिब' की ज़िंदगी क्या थी कि मैं ने हज़रत-ए-ग़ालिब का फ़िल्म देखा है सुनी जो मैं ने ये तन्क़ीद तो समझ न सका कि इस ग़रीब को 'ग़ालिब' से दुश्मनी क्या है समझ गया कि ये बकवास बे-सबब तो नहीं दिमाग़ का कोई पुर्ज़ा ज़रूर ढीला है बढ़ी जो बात तो फिर मैं ने उस को समझाया अदब में हज़रत-ए-ग़ालिब का मर्तबा क्या है बताया उस को कि वो ज़िंदगी का है शाएर बहुत क़रीब से दुनिया को उस ने देखा है अजब तज़ाद की हामिल है उस की शख़्सिय्यत अजीब शख़्स है बर्बाद हो के हँसता है चराग़-ए-सुब्ह की मानिंद ज़िंदगी उस की इक आसरा है इक अरमाँ है इक तमन्ना है जो उस को रोकना चाहो तो और तेज़ बहे अजीब मौज-ए-रवाँ है अजीब दरिया है चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन रफ़ू की उस को ज़रूरत है और न पर्वा है वो लिख रहा है हिकायात-ए-ख़ूँ-चकान-ए-जुनून जभी तो उस के क़लम से लहू टपकता है बस एक लफ़्ज़ के पर्दे में दास्ताँ कहना ये फ़िक्र-ओ-फ़न की बुलंदी उसी का हिस्सा है न क्यूँ हों आज वो मशहूर पूरी दुनिया में कि उस की फ़िक्र का मौज़ूअ पूरी दुनिया है पहुँच गया है वो उस मंज़िल-ए-तफ़क्कुर पर जहाँ दिमाग़ भी दिल की तरह धड़कता है कभी तो उस का कोई शेर-ए-सादा-ओ-रंगीं रुख़-ए-बशर की तरह कैफ़ियत बदलता है ये हम ने माना कि कुछ ख़ामियाँ भी थीं उस में वो ख़ामियाँ नहीं रखता ये किस का दावा है वो आदमी था ख़ता आदमी की है फ़ितरत ये क्यूँ कहें कि वो इंसाँ नहीं फ़रिश्ता है जो चाहते हैं कि फ़ौक़-उल-बशर बना दें उसे हमें तो उस के उन अहबाब से भी शिकवा है हज़ार लोगों ने चाहा कि उस के साथ चलें मगर वो पहले भी तन्हा था अब भी तन्हा है कभी वली कभी वाइज़ कभी ख़राबाती समझ सको तो समझ लो वो इक मोअम्मा है अगर ये सच है कि अल्फ़ाज़ रूह रखते हैं तो ये भी सच है वो अल्फ़ाज़ का मसीहा है