हे पुरुष,जब मेघ सदृश्य हो गरजतेफिर मेह समान तुम बरसतेजल में भीगी एक मशाल सेन बुझते ही हो न तुम जलतेकदाचित प्रतीत तुम्हें मात्र मैं दुर्बल अबला दुखियारीतेरी सहस्त्र गर्जनाओं पर हैसदैव मेरा एक मौन भारीदृष्टिकोण क्यों स्वार्थ भरानिभा प्रत्येक दायित्व मेराकिंचित विलंब से है उदित स्वावलंबन का आदित्य मेराअथक यत्न और परिश्रम सेएकत्रित आत्मशक्ति सारीअंतर्मन की किसी कंदरा मेंजीवित रख छोड़ी चिंगारीसहनशील एवं करुणामयीप्रत्येक स्त्री का गौरव क्षमाकिंतु स्मरण ये रहे अवश्यस्त्री से संभव सृष्टि रचनाव्यर्थ है ये पुरुषार्थ तुम्हाराभावना यदि अहम से हारीनिर्लज्ज समाज मौन जबबनी रणचंडी बांध कटारीमैं मातृशक्ति हूँ मैं भगिनीमैं सखी मैं ही सहगामिनीसर्व स्वरूप हैं आदरणीय समझो न केवल कामिनीमैं लक्ष्मी और मैं सरस्वतीमैं ही देवी कालिका संहारीसृजन कभी तो मर्दन कभीमैं नारी, मैं नारी, मैं नारी!!!