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आदमी बुलबुला है पानी का और पानी की बहती सतहा पर टूटता भी है डूबता भी है फिर उभरता है, फिर से बहता है न समुंदर निगल सका इस को न तवारीख़ तोड़ पाई है वक़्त की हथेली पर बहता आदमी बुलबुला है पानी का
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