गुज़र रहे हैं मिरी ज़िंदगी के शाम ओ सहर गिनूँगा बैठा हुआ दाना दाना हर साअत सदा लगाती गदायाना शाम आई थी ये कोई दर न खुला न कुछ जवाब मिला निढाल दुबकी हुई सो रही है कोने में धरा है क्या मिरी झोली में आहटों के सिवा यही है ज़ाद-ए-सफ़र यही मिरी सौग़ात किसी को दूँ भी तो कोई भला न हो उस का जो साथ क़ब्र में ले जाऊँ तो मलाल न हो हर एक गाम पे लेकिन ये साथ आई हैं यहाँ मैं ख़ुद नहीं पहुँचा ये मुझ को लाई हैं