दरवाज़े पे खट से हुई इक आवाज़ और मैं चौंक गई ज़रूर होगा आज का अख़बार दरवाज़ा खोल कर देखा मेरा अंदाज़ा सही नहीं था वहाँ अख़बार पड़ा नहीं था वहाँ था आग का एक गोला उस में लिपटी थीं चंद मसली हुई मासूम कलियाँ कुछ गंदी तंग गलियाँ भूक का सोज़ और कुछ ज़ख़ीरा-अंदोज़ बे-रोज़-गारी का सन्नाटा ग़ुर्बत का चाँटा सूखा और बाज़ार मंदा साथ में ख़ुद-कुशी का था फंदा सरहदों के झगड़े जंग और एक ख़तरा एटम-बम कितने जंगल घटती हरियाली बीमारी अस्पतालों की बद-हाली घोटालों का शोर और रिश्वत-ख़ोरी की होड़ ज़ुल्म-ओ-सितम की दास्तानें धमाकों की आवाज़ें दिमाग़ घूम गया फिर ग़ौर से देखा अरे नहीं वो आज का अख़बार ही था लरज़ते काँपते हाथों से उठा लिया उठाना तो था ही ना