हर्फ़-ए-हक़ दिल से ज़बाँ तक ला रहा हूँ आज-कल क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन दोहरा रहा हूँ आज-कल हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम की तीरगी से दूर हूँ ज़िंदगी के पेच-ओ-ख़म सुलझा रहा हूँ आज-कल शाख़-ए-गुल पर अब न पाओगे मुझे तुम नग़्मा-ख़्वाँ आँधियों के पालने में गा रहा हूँ आज-कल हो रहेगी कअ'र-ए-दरिया की हक़ीक़त आश्कार मौज-ओ-तूफ़ाँ के थपेड़े खा रहा हूँ आज-कल अपनी दुनिया-ए-तग-ओ-दौ अपनी किश्त-ए-ज़ीस्त पर अब्र-ए-रहमत बन के मैं ख़ुद छा रहा हूँ आज-कल मेरे जब्र-ओ-क़हर की हम्द-ओ-सना के बा'द अब अपने इस्तिक़्लाल के गुन गा रहा हूँ आज-कल वादी-ए-इश्क़-ओ-जुनूँ में रह-रवान-ए-शौक़ को मा'नी-ए-हर्फ़-ए-वफ़ा समझा रहा हूँ आज-कल ताकि अनवार-ए-सुख़न से जगमगा जाए जहाँ शम्अ' की मानिंद जलता जा रहा हूँ आज-कल अब कि यारान-ए-वतन की दीद का इम्काँ नहीं 'अश्क' ग़ुर्बत में सुकूँ सा पा रहा हूँ आज-कल