अपने दिल की क़ौस-ए-क़ुज़ह के टुकड़े टुकड़े कर के मैं ने लम्हा लम्हा रंग बिखेरे सूरज की हर लहज़ा बरसती आगों को अपने ही पिघलते तन में समो कर चाँदनी जैसी इक ठंडी छितनार बनाई भूरी दरीदा-तन धरती पर अश्कों के बादल बरसा कर पीली हरी चादर फैलाई अपनी नज़र की सुनहरी किरनों की बारिश से मांगों में सिन्दूर भरा मेरे लहू के मीठे रस से जनम जनम के प्यासे सहराओं में जल-थल भिक्षू आए मांगों के सिन्दूर को चाटा पीली हरी चादर को रौंदा लम्बे नाख़ुनों वाले खुरदुरे हाथों से ठंडी छितनार पे झपटे पाक पवित्र जल-थल में काले जिस्मों की स्याही घोली मेरे दिल की क़ौस-ए-क़ुज़ह से ज़ंजीरों के हल्क़े ढाले अब मैं सिमटी आँख की पुतली