काँटों की चट्टान पे खड़ी मैं आँखों की सूइयाँ निकाल रही हूँ ये इलाक़ा किस सल्तनत में शामिल है मुलूकियत मेरी ज़बान पे काँटे हल्क़ में फंदा आँखें बाहर शाह-बलूत के लम्बे दरख़्तों जैसे लम्बे पूत बहुत हो गए हैं जंगल में दरख़्त ज़ियादा हो जाएँ तो आग लगा कर दरख़्त कम कर दिए जाते हैं बाहर निकली हुई आँख से ज़ाफ़रान का खेत और कटे हुए बाज़ुओं से गन्ने की पोरियाँ बन गई हैं हम ने एक झूट बोला था ना अब सारी उम्र उस को सच साबित करने में गुज़ार देंगे हम कि जो ज़िंदगी भर अपने हिस्से की रोटी कमाने की कोशिश करते हैं और भूके रहते हैं झूटी आस की छतरी तले बुलबुले जैसे आँसू बताशों की तरह थाल में सजाए कब तक बतलाती रहोगी कि वो तुम्हारा क़ातिल नहीं है क़त्ल महज़ सानिए में ज़िंदगी का रिश्ता ख़त्म करने का नाम नहीं मौजूद से इंकार भी तो क़त्ल के मुतरादिफ़ होता है मेरा जी करता है वो जो सब मेरे क़ातिल हैं मैं उन्हें हवा की तरह निगल जाऊँ