तुम मिरी ज़िंदगी में आई हो मेरा इक पाँव जब रिकाब में है दिल की धड़कन है डूबने के क़रीब साँस हर लहज़ा पेच-ओ-ताब में है टूटते बे-ख़रोश तारों की आख़िरी कपकपी रुबाब में है कोई मंज़िल न जादा-ए-मंज़िल रास्ता गुम किसी सराब में है तुम को चाहा किया ख़यालों में तुम को पाया भी जैसे ख़्वाब में है तुम मिरी ज़िंदगी में आई हो मेरा इक पाँव जब रिकाब में है मैं सोचता था कि तुम आओगी तुम्हें पा कर मैं इस जहान के दुख-दर्द भूल जाऊँगा गले में डाल के बाँहें जो झूल जाओगी मैं आसमान के तारे भी तोड़ लाऊँगा तुम एक बेल की मानिंद बढ़ती जाओगी न छू सकेंगी हवादिस की आँधियाँ तुम को मैं अपनी जान पे सौ आफ़तें उठा लूँगा छुपा के रक्खूँगा बाँहों के दरमियाँ तुम को मगर मैं आज बहुत दूर जाने वाला हूँ बस और चंद नफ़स को तुम्हारे पास हूँ मैं तुम्हें जो पा के ख़ुशी है तुम उस ख़ुशी पे न जाओ तुम्हें ये इल्म नहीं किस क़दर उदास हूँ मैं क्या तुम को ख़बर इस दुनिया की क्या तुम को पता इस दुनिया का मासूम दिलों को दुख देना शेवा है इस दुनिया का ग़म अपना नहीं ग़म इस का है कल जाने तुम्हारा क्या होगा परवान चढ़ोगी तुम कैसे जीने का सहारा क्या होगा आओ कि तरसती बाँहों में इक बार तो तुम को भर लूँ मैं कल तुम जो बड़ी हो जाओगी जब तुम को शुऊर आ जाएगा कितने ही सवालों का धारा एहसास से टकरा जाएगा सोचोगी कि दुनिया तबक़ों में तक़्सीम है क्यूँ ये फेर है क्या इंसान का इंसाँ बैरी है ये ज़ुल्म है क्या अंधेर है क्या ये नस्ल है क्या ये ज़ात है क्या ये नफ़रत की तालीम है क्यूँ दौलत तो बहुत है मुल्कों में दौलत की मगर तक़्सीम है क्यूँ तारीख़ बताएगी तुम को इंसाँ से कहाँ पर भूल हुई सरमाए के हाथों लोगों की किस तरह मोहब्बत धूल हुई सदियों से बराबर मेहनत-कश हालात से लड़ते आए हैं छाई है जो अब तक धरती पर उस रात से लड़ते आए हैं दुनिया से अभी तक मिट न सका पर राज इजारा-दारी का ग़ुर्बत है वही अफ़्लास वही रोना है वही बेकारी का मेहनत की अभी तक क़द्र नहीं मेहनत का अभी तक मोल नहीं ढूँडे नहीं मिलतीं वो आँखें जो आँखें हो कश्कोल नहीं सोचा था कि कल इस धरती पर इक रंग नया छा जाएगा इंसान हज़ार बरसों की मेहनत का समर पा जाएगा जीने का बराबर हक़ सब को जब मिलता वो पल आ न सका जिस कल की ख़ातिर जीते-जी मरते रहे वो कल आ न सका लेकिन ये लड़ाई ख़त्म नहीं ये जंग न होगी बंद कभी सौ ज़ख़्म भी खा कर मैदाँ से हटते नहीं जुरअत-मंद कभी वो वक़्त कभी तो आएगा जब दिल के चमन लहराएँगे मर जाऊँ तो क्या मरने से मिरे ये ख़्वाब नहीं मर जाएँगे ये ख़्वाब ही मेरी दौलत हैं ये ख़्वाब तुम्हें दे जाऊँगा इस दहर में जीने मरने के आदाब तुम्हें दे जाऊँगा मुमकिन है कि ये दुनिया की रविश पल भर को तुम्हारा साथ न दे काँटों ही का तोहफ़ा नज़्र करे फूलों की कोई सौग़ात न दे मुमकिन है तुम्हारे रस्ते में हर ज़ुल्म-ओ-सितम दीवार बने सीने में दहकते शोले हों हर साँस कोई आज़ार बने ऐसे में न खुल कर रह जाना अश्कों से न आँचल भर लेना ग़म आप बड़ी इक ताक़त है ये ताक़त बस में कर लेना हो अज़्म तो लौ दे उठता है हर ज़ख़्म सुलगते सीने का जो अपना हक़ ख़ुद छीन सके मिलता है उसे हक़ जीने का लेकिन ये हमेशा याद रहे इक फ़र्द की ताक़त कुछ भी नहीं जो भी हो अकेले इंसाँ से दुनिया की बग़ावत कुछ भी नहीं तन्हा जो किसी को पाएँगे ताक़त के शिकंजे जकड़ेंगे सौ हाथ उठेंगे जब मिल कर दुनिया का गरेबाँ पकड़ेंगे इंसान वही है ताबिंदा उस राज़ से जिस का सीना है औरों के लिए तो जीना ही ख़ुद अपने लिए भी जीना है जीने की हर तरह से तमन्ना हसीन है हर शर के बावजूद ये दुनिया हसीन है दरिया की तुंद बाढ़ भयानक सही मगर तूफ़ाँ से खेलता हुआ तिनका हसीन है सहरा का हर सुकूत डराता रहे तो क्या जंगल को काटता हुआ रस्ता हसीन है दिल को हिलाए लाख घटाओं की घन-गरज मिट्टी पे जो गिरा है वो क़तरा हसीन है दहशत दिला रही हैं चटानें तो क्या हुआ पत्थर में जो सनम है वो कितना हसीन है रातों की तीरगी है जो पुर-हौल ग़म नहीं सुब्हों का झाँकता हुआ चेहरा हसीन है हों लाख कोहसार भी हाएल तो क्या हुआ पल पल चमक रहा है जो तेशा हसीन है लाखों सऊबतों का अगर सामना भी हो हर जोहद हर अमल का तक़ाज़ा हसीन है चमन से चंद ही काँटे मैं चुन सका लेकिन बड़ी है बात जो तुम रंग-ए-गुल निखार सको ये दूर दौर-ए-जहाँ काश तुम को रास आए तुम इस ज़मीन को कुछ और भी सँवार सको अमल तुम्हारा ये तौफ़ीक़ दे सके तुम को कि ज़िंदगी का हर इक क़र्ज़ तुम उतार सको सफ़र हयात का आसान हो ही जाता है अगर हो दिल को सहारा किसी की चाहत का वो प्यार जिस में न हो अक़्ल ओ दिल की यक-जेहती किसी तरीक़ से जज़्बा नहीं मोहब्बत का हज़ारों साल में तहज़ीब-ए-जिस्म निखरी है बजा कि जिंस तक़ाज़ा है एक फ़ितरत का तुम्हें कल अपने शरीक-ए-सफ़र को चुनना है वो जिस से तुम को मोहब्बत मिले रिफ़ाक़त भी हज़ार एक हों दो ज़ेहन मुख़्तलिफ़ होंगे ये बात तल्ख़ है लेकिन है ऐन-फ़ितरत भी बहुत हसीन है ज़ेहनी मुफ़ाहमत लेकिन बड़ी अज़ीम है आदर्श की हिफ़ाज़त भी कभी ये गुल भी नज़र को फ़रेब देते हैं हर एक फूल में तमईज़-ए-रंग-ओ-बू रखना ख़याल जिस का गुज़र-गाह-ए-सद-बहाराँ है हर इक क़दम उसी मंज़िल की आरज़ू रखना कोई भी फ़र्ज़ हो ख़्वाहिश से फिर भी बरतर है तमाम उम्र फ़राएज़ की आबरू रखना तुम एक ऐसे घराने की लाज हो जिस ने हर एक दौर को तहज़ीब ओ आगही दी है तमाम मंतिक़ ओ हिकमत तमाम इल्म ओ अदब चराग़ बन के ज़माने को रौशनी दी है जिला-वतन हुए आज़ादी-ए-वतन के लिए मरे तो ऐसे कि औरों को ज़िंदगी दी है ग़म-ए-हयात से लड़ते गुज़ार दी मैं ने मगर ये ग़म है तुम्हें कुछ ख़ुशी न दे पाया वो प्यार जिस से लड़कपन के दिन महक उट्ठें वो प्यार भी मैं तुम्हें दो घड़ी न दे पाया मैं जानता हूँ कि हालात साज़गार न थे मगर मैं ख़ुद को तसल्ली कभी न दे पाया ये मेरी नज़्म मिरा प्यार है तुम्हारे लिए ये शेर तुम को मिरी रूह का पता देंगे यही तुम्हें मिरे अज़्म ओ अमल की देंगे ख़बर यही तुम्हें मिरी मजबूरियाँ बता देंगे कभी जो ग़म के अँधेरे में डगमगाओगी तुम्हारी राह में कितने दिए जला देंगे अब मिरे पास और वक़्त नहीं साँस हर लहज़ा इज़्तिराब में है लर्ज़ां लर्ज़ां कोई धुँदलका सा डूबते ज़र्द आफ़्ताब में है मौत को किस लिए हिजाब कहें किस को मालूम क्या हिजाब में है जिस्म-ओ-जाँ का ये आरज़ी रिश्ता कितना मिलता हुआ हुबाब में है आज जो है वो कल नहीं होगा आदमी कौन से हिसाब में है ख़ुद ज़माने बदलते रहते हैं ज़िंदगी सिर्फ़ इंक़लाब में है आओ आँखों में डाल दो आँखें रूह अब नज़'अ के अज़ाब में है थरथराता हुआ तुम्हारा अक्स कब से इस दीदा-ए-पुर-आब में है रौशनी देर से आँखों की बुझी जाती है ठीक से कुछ भी दिखाई नहीं देता मुझ को एक चेहरा मिरे चेहरे पे झुका आता है कौन है ये भी सुझाई नहीं देता मुझ को सिर्फ़ सन्नाटे की आवाज़ चली आती है और तो कुछ भी सुनाई नहीं देता मुझ को आओ उस चाँद से माथे को ज़रा चूम तो लूँ फिर न होगा तुम्हें ये प्यार नसीब आ जाओ आख़िरी लम्हा है सीने पे मिरे सर रख दो दिल की हालत हुई जाती है अजीब आ जाओ न अइज़्ज़ा न अहिब्बा न ख़ुदा है न रसूल कोई इस वक़्त नहीं मेरे क़रीब आ जाओ तुम तो क़रीब आ जाओ!
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