कितनी यादें जला चुका हूँ मैं कितने अरमाँ बुझा चुका हूँ मैं कुर्सियाँ खींच कर मिरे नज़दीक अपने माज़ी पे सोचने वाले दास्ताँ बुन रहे हैं माज़ी की कटकटाते हुए वो चिलगोज़े छील कर मुँह में डालते जाएँ और शो'लों से खेलते जाएँ याद आएँ जो शो'ला-रू लम्हे झुर्रियों से अटे हुए चेहरे एक पल के लिए दमक उठें आख़िरी लौ चराग़ की जैसे फिर उन्हीं कुर्सियों में धँस जाएँ बंद आँखों से मश्क़ करते रहें हश्र तक गहरी नींद सोने की