हज़ारों साल बीते मिरी ज़रख़ेज़ धरती के सिंघासन पर बिराजे देवताओं के सरापे साँवले थे मगर उस वक़्त भी कुछ हुस्न का मेआ'र ऊँचा था हिमाला की हसीं बेटी उन्हें भाई बृन्दाबन की धरती पर थिरकती नाचती राधा बसी थी कृष्ण के दिल में उन्हें भी हुस्न की मन-मोहनी मूरत पसंद आई मगर उन को ख़ुदा होते हुए भी ये ख़बर कब थी कि उन की आने वाली नस्ल पर उन का सरापा बहुत गहरा असर है छोड़ने वाला हज़ारों साल बीते मगर अब भी हमारी साँवली रंगत तिरा वरदान हो गोया हमारा हम-सफ़र भी किसी पारो किसी राधा का अंधा ख़्वाब आँखों में बसाए लिए कश्कोल हाथों में फिरे बस्ती की गलियों में हम अब किस ज़ो'म में पूजा की थाली में दिए रख कर तिरी चौखट पे आएँ सर झुकाएँ उतारें आरती तेरी हमारे बख़्त पर तेरा ये श्यामल रंग इक आसेब की सूरत मुसल्लत है हम अब तो डर के मारे आइनों से मुँह छुपाए फिर रहे हैं