उफ़ुक़-ए-रूस से फूटी है नई सुब्ह की ज़ौ शब का तारीक जिगर चाक हुआ जाता है तीरगी जितना सँभलने के लिए रुकती है सुर्ख़ सैल और भी बेबाक हुआ जाता है सामराज अपने वसीलों पे भरोसा न करे कोहना ज़ंजीरों की झंकारें नहीं रह सकतीं जज़्बा-ए-नुसरत-ए-जम्हूर की बढ़ती रौ में मुल्क और क़ौम की दीवारें नहीं रह सकतीं संग-ओ-आहन की चट्टानें हैं अवामी जज़्बे मौत के रेंगते सायों से कहो हट जाएँ करवटें ले के मचलने को है सैल-ए-अनवार तीरा-ओ-तार घटाओं से कहो छट जाएँ साल-हा-साल के बेचैन शरारों का ख़रोश इक नई ज़ीस्त का दर बाज़ किया चाहता है अज़्म-ए-आज़ादी-ए-इंसाँ ब-हज़ाराँ जबरूत इक नए दौर का आग़ाज़ किया चाहता है बरतर अक़्वाम के मग़रूर ख़ुदाओं से कहो आख़िरी बार ज़रा अपना तराना दोहराएँ और फिर अपनी सियासत पे पशेमाँ हो कर अपने नाकाम इरादों का कफ़न ले आएँ सुर्ख़ तूफ़ान की मौजों के जकड़ने के लिए कोई ज़ंजीर-ए-गिराँ काम नहीं आ सकती रक़्स करती हुई किरनों के तलातुम की क़सम अरसा-ए-दहर पे अब शाम नहीं छा सकती