अर्सा-ए-उम्र में हम कहाँ आ गए जिस जगह अब मोहब्बत का कोई निशाँ ही नहीं ज़िंदगी का जहाँ पर गुमाँ ही नहीं ऐ मिरे अजनबी सब्ज़ा-ओ-गुल की रंगीनियाँ खो गईं फूल मुरझा गए तितलियाँ सो गईं ज़िंदगी का जहाँ पर गुमाँ ही नहीं ऐ मिरे अजनबी शहर-ए-ना-वाक़िफ़-ए-हाल में आ गए पंछियों की तरह जाल में आ गए ख़ून जैसे रगों में रवाँ ही नहीं ऐ मिरे अजनबी हम कहाँ आ गए राख बाक़ी नहीं और धुआँ ही नहीं शहर में अब कोई मेहरबाँ ही नहीं ऐ मिरे अजनबी अर्सा-ए-उम्र में हम कहाँ आ गए जिस जगह अब मोहब्बत का कोई निशाँ ही नहीं ज़िंदगी का जहाँ पर गुमाँ ही नहीं