अजब पानी है अजब मल्लाह है सूराख़ से बे-फ़िक्र आसन मार के कश्ती के इक कोने में बैठा है अजब पानी है जो सूराख़ से दाख़िल नहीं होता कोई मौज-ए-नहुफ़्ता है जो पेंदे से किसी लकड़ी के तख़्ते की तरह चिपकी है कश्ती चल रही है सर-फिरी लहरों के झूले में अभी ओझल है जैसे डूबती अब डूबती है जैसे बत्न-ए-आब से जैसे तलातुम की सियाही से अभी निकली है जैसे रात-दिन बस एक ही आलम में कश्ती चल रही है क्या अजब कश्ती है जिस के दम से ये पानी रवाँ है और उस मल्लाह का दिल नग़्मा-ख़्वाँ है कितने टापू राह में आए मगर मल्लाह ख़ुश्की की तरफ़ खिंचता नहीं नज़ारा-ए-रक़्सन्दगी ख़्वाब में शामिल नहीं होता अजब पानी है जो सूराख़ से दाख़िल नहीं होता