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अजीब आदमी था वो मोहब्बतों का गीत था बग़ावतों का राग था कभी वो सिर्फ़ फूल था कभी वो सिर्फ़ आग था अजीब आदमी था वो वो मुफ़लिसों से कहता था कि दिन बदल भी सकते हैं वो जाबिरों से कहता था तुम्हारे सर पे सोने के जो ताज हैं कभी पिघल भी सकते हैं वो बंदिशों से कहता था मैं तुम को तोड़ सकता हूँ सहूलतों से कहता था मैं तुम को छोड़ सकता हूँ हवाओं से वो कहता था मैं तुम को मोड़ सकता हूँ वो ख़्वाब से ये कहता था कि तुझ को सच करूँगा मैं वो आरिज़ों से कहता था मैं तेरा हम-सफ़र हूँ तेरे साथ ही चलूँगा मैं तू चाहे जितनी दूर भी बना ले अपनी मंज़िलें कभी नहीं थकूँगा मैं वो ज़िंदगी से कहता था कि तुझ को मैं सजाऊँगा तू मुझ से चाँद माँग ले मैं चाँद ले के आऊँगा वो आदमी से कहता था कि आदमी से प्यार कर उजड़ रही है ये ज़मीं कुछ इस का अब सिंघार कर अजीब आदमी था वो वो ज़िंदगी के सारे ग़म तमाम दुख हर इक सितम से कहता था मैं तुम से जीत जाऊँगा कि तुम को तो मिटा ही देगा एक रोज़ आदमी भुला ही देगा ये जहाँ मिरी अलग है दास्ताँ वो आँखें जिन में ख़्वाब हैं वो दिल है जिन में आरज़ू वो बाज़ू जिन में है सकत वो होंट जिन पे लफ़्ज़ हैं रहूँगा उन के दरमियाँ कि जब मैं बीत जाऊँगा अजीब आदमी था वो
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