अकड़ शाह इक शख़्स-ए-नादान था वो इस बात से लेकिन अंजान था थी उस की तबीअत में आवारगी हिमाक़त वो करता था यक-बारगी वो कर्ज़ों के मारे परेशान था उसूल-ए-तिजारत से अंजान था ख़रीदार आते थे बस ख़ाल-ख़ाल कि मौसम का रखता न था वो ख़याल कि सर्दी में वो गोले गंडे रखे तो गर्मी में वो उबले अंडे रखे दिसम्बर में क़ुलफ़ी की खोले दुकान मई में रखे मोटे कपड़ों के थान