मसख़रा था बादशह का इक ग़ुलाम हो गया था वो बहुत ही नेक-नाम ख़िदमत-ए-मख़्लूक़ उस का काम था और इस नेकी का चर्चा आम था देखिए करना ख़ुदा का क्या हुआ एक उस का दोस्त ग़म में फँस गया रंग लाई शाह की चश्म-ए-इताब बे-नवा पर हो गया नाज़िल अज़ाब मिल चुका था हुक्म उस को क़त्ल का अब रिहाई का कोई चारा न था मौत की साअ'त नज़र आई क़रीब मस्ख़रे के पास पहुँचा वो ग़रीब कह सुनाया उस को अपना माजरा शाह वाला-जाह है मुझ से ख़फ़ा फिर सिफ़ारिश के लिए वो मसख़रा जल्द-तर दरबार-ए-शाही में गया बादशाह ने मस्ख़रे को देख कर की बड़े ग़ुस्से से उस पर भी नज़र फिर कहा तेरी न मानूँगा कभी तल्ख़ कर रखी है तू ने ज़िंदगी हर किसी का तू बना है ग़म-गुसार फिर सिफ़ारिश का हो क्यों कर ए'तिबार मैं करूँगा तेरे कहने के ख़िलाफ़ कर नहीं सकता क़ुसूर इस का मुआ'फ़ मस्ख़रे ने अर्ज़ की आलम-पनाह क़ौल से फिरते नहीं हैं बादशाह क़त्ल हो जाए ये बद-क़िस्मत शिताब कीजिए दिल खोल कर इस पर इताब ये इताब-ए-शाह जल्द ही दूर हो और दिल सरकार का मसरूर हो बादशह को आ गई इस पर हँसी पाई मुजरिम ने दोबारा ज़िंदगी मस्ख़रे की अक़्ल पर सब शाद थे ग़म-ज़दा दिल ऐश से आबाद थे बच गई इक जान उस की बात से हो गया बेकस रिहा आफ़ात से