अकेले होने का ख़ौफ़ हमें ये रंज था जब भी मिले चारों तरफ़ चेहरे शनासा थे हुजूम-ए-रहगुज़र बाहोँ में बाहें डाल कर चलने नहीं देता कहीं जाएँ तआक़ुब करते साए घेर लेते हैं हमें ये रंज था चारों तरफ़ की रौशनी बुझ क्यूँ नहीं जाती अंधेरा क्यूँ नहीं होता अकेले क्यूँ नहीं होते हमें ये रंज था लेकिन ये कैसी दूरियाँ तारीक सन्नाटे की इस साअत में अपने दरमियाँ फिर से चली आईं
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