अपने माज़ी के घने जंगल से कौन निकलेगा! कहाँ निकलेगा बे-कराँ रात सितारे नाबूद चाँद उभरा है? कहाँ उभरा है? इक फ़साना है तजल्ली की नुमूद कितने गुंजान हैं अश्जार-ए-बुलंद कितना मौहूम है आदम का वजूद मुज़्महिल चाल क़दम बोझल से अपने माज़ी के घने जंगल से मुझ को सूझी है नई राह-ए-फ़रार आहन ओ संग ओ शरर बरसाएँ आओ अश्जार की बुनियादों पर तेशा ओ तेग़-ओ-तबर बरसाएँ इक तसलसुल से हम अपनी चोटें बे-ख़तर बार-ए-दिगर बरसाएँ ज़ेहन पर छाए हैं क्यूँ बादल से अपने माज़ी के घने जंगल से नौ-ए-इंसाँ को निकलना होगा इन अँधेरों को निगलना होगा
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