फ़साना कैसे बढ़े न कोई साहिर-ए-पज़मुर्दा सिन न सौदागर न चीन से कोई आए न बाख़्तर से कोई बलख़ के शहर में और क़ाफ़ के परिस्ताँ में कोई परी न परी-ज़ाद कौन आएगा फ़साना कैसे बढ़े विलायतों के फ़रिस्ताद-गान-ए-इश्क़ तो क्या कनार-ए-बहर पे क़ज़्ज़ाक़ भी नहीं कोई अज़ा-कुनिंदा-ए-शब है न है पयामी-ए-सुब्ह न दश्त-ए-रह-ज़दगाँ में है सब्ज़-पोश कोई न देवता है न अवतार हैं न पैग़म्बर फ़साना कैसे बढ़े हज़ारों रातों की वो दास्ताँ तमाम हुई हज़ारों क़िस्सों की वो रात ख़त्म पर आई बहाना कोई नहीं बस अब कि माल-ए-शिकस्त-ए-बयाँ की बारी है फ़साना कोई नहीं अब तो जाँ की बारी है