कहते हैं कभी गोश्त न खाता था म'अर्री फल-फूल पे करता था हमेशा गुज़र-औक़ात इक दोस्त ने भूना हुआ तीतर उसे भेजा शायद कि वो शातिर इसी तरकीब से हो मात ये ख़्वान-ए-तर-ओ-ताज़ा म'अर्री ने जो देखा कहने लगा वो साहिब-ए-गुफ़रान-ओ-लुज़ूमात ऐ मुर्ग़क-ए-बेचारा ज़रा ये तो बता तू तेरा वो गुनह क्या था ये है जिस की मुकाफ़ात? अफ़्सोस-सद-अफ़्सोस कि शाहीं न बना तू देखे न तिरी आँख ने फ़ितरत के इशारात! तक़दीर के क़ाज़ी का ये फ़तवा है अज़ल से है जुर्म-ए-ज़ईफ़ी की सज़ा मर्ग-ए-मुफ़ाजात!