अना और मोहब्बत

ये मैं कि मुझ से छिन गया है सर-बसर
वो कौन है कि जिस की दस्तरस में आ के मैं मिरा नहीं रहा

मुझे तो मैं तमाम काएनात से अज़ीज़ था
मिरी अना की सल्तनत वसीअ' थी अरीज़ थी और उस का नारसिसस था मैं

वो सल्तनत जहाँ पे सिर्फ़ मैं था मेरा अक्स था
और इस के मा-सिवा नफ़ी का रक़्स था

मैं अपनी ज़ात पर फ़रेफ़्ता रहा
मैं अपने आप ही का शेफ़्ता रहा

न जाने कितने मेहर-ओ-मह की ताबिशें मिरी तजल्लियों की ज़द पे आ के ख़ाक हो गईं
मिरी नज़र को कोई भी मिरे सिवा जचा नहीं

मगर वो एक शाम अजब तिलिस्म-रंग-शाम थी
फ़ुसूँ-तराज़ साहिरा सरापा रश्क-ए-जाम थी

वो साहिरा कि लश्कर-ए-जमाल-ए-बा-कमाल उस के साथ था
वो साहिरा कि क़त्ल-ए-आम के तमाम असलहों से लैस थी

बला की जंग छिड़ गई
मिरी अना थी इक तरफ़ और उस का हुस्न इक तरफ़

वो यक-ब-यक शदीद यूरिशें हुईं
मिरे सभी हवास उस के यर्ग़माल हो गए

तमाम ख़ुद-पसंदियों का तख़्त-ओ-ताज लुट गया
मिरी अना की सल्तनत तमाम उजड़ के रह गई


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