साँवली! तो मिरे पहलू में है लेकिन तिरी प्यासी आँखें कभी दीवार को तकती हैं कभी जानिब-ए-दर देखती हैं मुझ से इस तरह गुरेज़ाँ जैसे उन्हें मुझ से नहीं दीवार से कुछ कहना है या ये पंछी हैं जिन्हें एक ही पर्वाज़ में उड़ जाना है हाथ नहीं आना है (ऐ मिरी साँवली! इन आँखों के दोनों पंछी गर उड़े भी तो मिरे दिल की तरफ़ आएँगे) साँवली! मुझ को तिरी आँखों ने वो फ़साने भी सुनाए कि जिन्हें कहना चाहें तो तिरे होंट फ़क़त ''जी'' कह कर और अफ़्सानों को दोहराने लगीं या तू बेगानों की मानिंद मिरे पास से गुज़रे तो कभी मेरी तरफ़ देख के चलना भी गवारा न करे लेकिन आँखों में चमक आ जाए मस्लहत होंट तो सी ले मगर इन आँखों को कैसे ख़ामोश रखे कैसे उन्हें समझाए बात करती है तो आँखें नहीं मिलने देती साँवली डरती है दिल नैन झरोकों में न आए