अपने दिल में डर हो तो ये बादल किस को लुभा सकते हैं अपने दिल में डर हो तो सब रुतें डरावनी लगती हैं और अपनी तरफ़ ही गर्दन झुक जाती है ये तो अपना हौसला था इतने अंदेशों में भी नज़रें अपनी जानिब नहीं उठीं और इस घनघोर घने कोहरे में जा डूबी हैं और अब मेरी सारी दुनिया इस कोहरे में नहाई हुई हरियावल का हिस्सा है मेरी ख़ुशियाँ भी और डर भी और इसी रस्ते पर मैं ने लोहे के हल्क़ों में इक क़ैदी को देखा आहन चेहरा सिपाही की जर्सी का रग उस क़ैदी के रुख़ पर था हर अंदेशा तो इक कुंडी है जो दिल को अपनी जानिब खींच के रखती है और वो क़ैदी भी खिचा हुआ था अपने दिल के ख़ौफ़ की जानिब जिस की कोई रुत नहीं होती मैं भी अपने अंदेशों का क़ैदी हूँ लेकिन उस क़ैदी के अंदेशे तो इक मेरे सिवा सब के हैं इक वही अपने अपने दुख की कुंडी जिस के खिचाव से इक इक गर्दन अपनी जानिब झुकी हुई है ऐसे में अब कौन घटाओं भरी उस सुब्ह-ए-बहाराँ को देखेगा जो इन बोर लदे अंदेशों पर यूँ झुकी हुई है आमों के बाग़ों में मिरी रूह के सामने