जिस्मों के खो जाने और रूयों के बदलने के कर्ब ने मुझे तमाम-उम्र अंदेशा-ए-ज़ियाअ' में ही मुब्तला रखा कल के दिन ने मुझ में बसे सब ख़ौफ़ मार दिए चेहरे से नक़ाब उतरा तो सच्चाई सीना ताने मेरे सामने आ खड़ी हुई ख़ुद से बिछड़ी हुई थी अब ख़ुद से आ मिली हूँ मेरा साया मुझ में नौ फटा हो कर जाग गया है और वो मेरा हाथ थामे बैठा है अब वही मोर-पंख वही झील वही मुर्ग़ाबी के बच्चे अख़रोट खाती गिलहरी और रंग बिखेरती तितली मेरा साया यही सब मुर्दा मनाज़िर को मेरे अंदर हनूत कर के बैठ गया है अब अपने ही साए की पनाह में हूँ जिस के न बदलने का डर न बिछड़ने का वहम एक सा बस मुझ में ही रहेगा मेरा ही रहेगा इस लिए अब तन्हाई से डर नहीं लगता अब जुदाई से डर नहीं लगता अब मैं अपनी पनाह में हूँ