ये ज़र्द मौसम के ख़ुश्क पत्ते हवा जिन्हें ले गई उड़ा कर अगर कभी उन को देख पाओ तो सोच लेना कि उन में हर बर्ग की नुमू में ज़ियाँ गया अरक़ शाख़-ए-गुल का कभी ये सरसब्ज़ कोंपलें थे कभी ये शादाब भी रहे हैं खिले हुए होंट की तरह नर्म और शगुफ़्ता बहुत दिनों तक ये सब्ज़ पत्ते हवा के रेलों में बेबसी से तड़प चुके हैं मगर ये अब ख़ुश्क हो रहे हैं मगर ये अब ख़ुश्क हो चुके हैं अगर कभी इस तरफ़ से गुज़रो तो देख लेना बरहना शाख़ें हवा के दिल में गढ़ी हुई हैं ये अब तुम्हारे लिए नहीं हैं नहीं हैं