ये कर्ब-ए-तख़्लीक़ कौन जाने सिवाए तेरे सिवाए मेरे तू बिन्त-ए-मरियम मैं बिंत-ए-हव्वा मिरी मसीहा अजीब रिश्ता है मेरा तेरा वो लम्हा-ए-कर्ब जब मुझे अपने जान-ओ-तन की ख़बर नहीं थी हर एक चेहरा था धुँदला धुँदला तमाम शक्लें मिटी मिटी सी फ़क़त तिरी शक्ल आइना थी तिरी सदा थी जो मेरे तार-ए-नफ़स को छू कर लहू की गर्दिश बढ़ा रही थी तिरी सदा इस ग़ुनूदा धड़कन में डूबती और उभरती साँसों के दरमियाँ ज़िंदगी से लबरेज़ जाम-ए-शीरीं तिरी सदा में वो हौसला था वो सरख़ुशी थी कि आख़िरी बार मेरे माथे पे सर्द क़तरे जो झिलमिलाए हयात और मौत की कश्मकश के माबैन मैं ने देखा तिरी निगाहों में जैसे महताब जगमगाए कि तेरा चेहरा इक ऐसी पाकीज़ा रौशनी से धुला हुआ था कि जैसे इंजील खुलती जाए वही तुलूअ'-ए-हयात का ख़ुश-गवार मंज़र कि तेरा मल्बूस ज़िंदगी के हज़ार रंगों से भर चुका था कि तेरे हाथों के नूर-प्यालों में मेरा सूरज दमक रहा था