आख़िरी बार कोह-ए-निदा के उस पार उस के सुनहरी वजूद की आयत मेरे दिल के क़िर्तास पर तसतीर होई मैं सात सवालों के जवाब तलाश करता हुआ इस अजनबी सर-ज़मीन पर उतरा था उस की सुनहरी नाफ़ का प्याला ख़ुतन से आई कस्तूरी से लबरेज़ था और सीने पर लाला के दो फूल खिले थे रौशनी उस के चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल तख़्लीक़ करने में मसरूफ़ थी वो सियाह पैरहन पहने हीरे के तख़्त को ठोकर पे लिए बैठी थी उस के पहलू में वफ़ादार ग़ुलाम ईस्तादा थे जिन के मोहब्बत से लबरेज़ दिल उन की हथेलियों पे धड़कते थे मैं ने अपनी ताज़ा नज़्म संदल की छाल पर लिख कर उसे हदिया की मेरी नज़्म के आख़िरी मिसरे तक आते आते उस का दिल आँखों से बह निकला उस ने हाथ बढ़ा कर रक़्स करते पेड़ का सब से ख़ुश-गुलू परिंदा तोड़ कर मेरी हथेली पर रखा तो उस के पहलू में ठाठें मारता जवाहरात का दरिया मेरे कुशादा दामन में बहने लगा मैं ने उस के दरिया को अपने चुल्लू में भरा और फ़र्श पर थूक दिया तब उस पर ये राज़ खुला कि मैं ही वो शाइ'र हूँ जिस ने नज़्म और तक़दीर ईजाद की