असीर कर नहीं सकता इन्हें कोई मौसम ये लोग अपने ज़माने से आगे चलते हैं कहीं ठहरते नहीं ये किसी भी आलम में ये उड़ते लम्हों की रफ़्तार को बदलते हैं ये बंदगान-ए-मोहब्बत हैं इन की बरकत से बिसात-ए-दिल पे हज़ारों चराग़ जलते हैं इन्हीं का फ़ैज़ इन्हीं का करम है बस्ती में कि लोग रक़्स-कुनाँ हैं सुरूर-ओ-मस्ती में महक रहे हैं दिलों के हज़ार काशाने उतर रही है घरों में ये रौशनी की बरात बिखर रही है फ़ज़ा-ए-ज़मीन ख़ुश-औक़ात खिले खिले हैं रह-ए-ज़िंदगी के सब अश्जार हयात बाँट रही है बहार की सौग़ात