ग़ुंचा-ओ-गुल की निकहत चुराई गई बिजलियों की हरारत चुराई गई गुलिस्ताँ की हवाओं को धुनका गया बुलबुलों की सदाओं को धुनका गया बर्फ़ को बर्क़ पारों को पीसा गया अब्र को चाँद तारों को पीसा गया कोहसार-ओ-गुलिस्ताँ तराशे गए लाल-ओ-याक़ूत-ओ-मर्जां तराशे गए चाँदनी-रात का हुस्न छीना गया कहकशाँ के पियाले में गूँधा गया ज़िंदगानी के रुख़्सार धोए गए शादमानी के मोती पिरोए गए आहनी शाहराहें गलाई गईं शबनमी शाहराहें बिछाई गईं माह-ए-नौ की शुआ'ओं को छाना गया आसमानों ज़मीनों को धोया गया ज़मज़मों के समुंदर खंंघाले गए आरज़ूओं के मोती निकाले गए दिल-नवाज़ी का जज़्बा उभारा गया नौजवानी का चेहरा निखारा गया शाख़-ए-गुल की नज़ाकत उबाली गई नर्म बाँहों के साँचे में ढाली गई और फिर सब को इक जा मिलाया गया गूँध कर एक पुतला बनाया गया मुद्दतों चाँद-तारों में पाला गया फिर वो औरत के साँचे में ढाला गया हर कली बाग़ में रक़्स करने लगी ज़ेहन में कोई सूरत उभरने लगी एक आवाज़ आई कि औरत हूँ मैं बर्क़ हूँ ज़लज़ला हूँ क़यामत हूँ मैं सुन के आवाज़ सज्दे में सब झुक गए आँधियाँ थम गईं ज़लज़ले रुक गए चूड़ियाँ सी हवा में खनकने लगीं छागलें सी फ़ज़ा में छनकने लगीं शिद्दत-ए-शौक़ से आग पानी हुई कोहसारों की पोशाक धानी हुई नर्म शाख़ें चमन में लचकने लगीं आरज़ूओं की कलियाँ चटकने लगीं फिर वो आवाज़ घुँघट से आने लगी शिद्दत-ए-शौक़ को आज़माने लगी और घुँघट जो रुख़ से सरकने लगा आदमी क्या ख़ुदा भी बहकने लगा ज़ुल्फ़ बिखरी तो शब का अँधेरा हुआ मुस्कुराई तो पहला सवेरा हुआ आँख बिखरी तो शब का अँधेरा हुआ मुस्कुराई तो पहला सवेरा हुआ आँख उठाई तो मोती से बरसा गई साँस ली तो हर इक शय में जान आ गई बरबत-ए-ग़म से नग़्मे निकलने लगे ज़िंदगानी के चश्मे उबलने लगे इश्क़ ने बढ़ के क़दमों पे सज्दा किया दहर की सम्त उसे फिर रवाना किया