मुजस्सम इश्वा-ओ-अंदाज़ भी है मगर औरत जहान-ए-राज़ भी है सितम-आराईयाँ तस्लीम लेकिन निहायत मुख़लिस-ओ-दमसाज़ भी है शक्त-ए-आरज़ू की बात कैसी हुजूम-ए-आरज़ू का राज़ भी है अगर कोताह-नज़री हो न हाइल तो शायद मरकज़-ए-पर्वाज़ भी है कहीं अफ़्साना-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत कहीं रूदाद-ए-सोज़-ओ-साज़ भी है यही तक़्दीस-ए-मर्यम ज़ब्त-ए-सीता यही अय्यार-ओ-शाहिद-बाज़ भी है इसी से रौनक़-ए-हर-अंजुमन भी यही हर फ़ित्ने का आग़ाज़ भी है यही गंजीना-ए-ज़ौक़-ए-निहानी मशिय्यत का यही एजाज़ भी है जहाँ है सर-ब-सज्दा इश्क़ अब तक यही वो बारगाह-ए-नाज़ भी है फ़ज़ा-ए-अल-जज़ाइर जिस पे क़ुर्बां इक ऐसी पुर-असर आवाज़ भी है ग़र्ज़ औरत जहान-ए-आब-ओ-गिल में ज़माना भी ज़माना-साज़ भी है
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