अयाज़ चुप है सदा-ए-महमूद हर्ब-ए-ताज़ा की तेज़-तर रौ में बह गई है अयाज़ चुप है अयाज़ चुप है कि अब असीरान-ए-शब भी ख़्वाबीदा अक्स ले कर थकी थकी ख़्वाहिशों के सीनों पे सो गए हैं वो दिन कि जिस दिन जले हुए ताक़चों पे हर्फ़ों की बे-कफ़न लाश दफ़्न होगी वो दिन कैलन्डर की सब्ज़ तह से सरक गया है अयाज़ चुप है लुटी हुई बस्तियों में तारीख़ का पड़ाव सफ़ों में तरतीब ढूँढता है लहू की हिद्दत में मुनक़सिम सुब्ह कम-नसीबाँ का गर्म सूरज हज़ार-हा गिर्हें खोलता है तो शहर-ए-कोहसार के जिलौ में क़दीम शाहराह पूछती है अयाज़ चुप है कि बोलता है अयाज़ चुप है सदा-ए-महमूद हर्ब-ए-ताज़ा की तेज़-तर रौ में बह गई है