बाबा ऐसे में तुम याद बहुत आते हो कैसी रुत है ऐसी रुत में आँखें क्यों भर आती हैं क्यों तन-मन से हूक उठती है क्यों जीवन बे-मा'नी सा लगने लगता है घर सूना वीरान ये आँगन और कमरों में वहशत बाबुल मैं तन्हा मेरी क़ीमत तुझ बिन क्या है कुछ भी नहीं है मैं तो काँच का मोती हूँ बाबुल का आँगन तो सावन में याद आया करता है लेकिन बाबा मैं तो पतझड़ देख के रोती हूँ बाबा ऐसे में तुम याद बहुत आते हो रात को सूखे पत्ते सहन में गिरते हैं गुज़रे दिन कब फिरते हैं फिर आती रुत फूल खिलेंगे फिर क़ब्रों पर रोना और क़ब्रों सा होना मिट्टी की तह में भी जा कर रिश्ते कब मिटते हैं दर्द की दीमक जिस्म को चाटती रहती है और साँसों के धागे काटती रहती है