ऐ बचपने की दुनिया तो याद आ रही है दिल से मिरी सदा-ए-फ़रियाद आ रही है राहत सुना रही थी अफ़्साना सल्तनत का थी माँ की गोद मुझ को काशाना सल्तनत का वो घर कि दूर जिस से थी गर्दिश-ए-ज़माना आज़ादियों का मेरी आबाद आशियाना फिरती है अब नज़र में तस्वीर उस मकाँ की अर्श-ए-बरीं से बेहतर थी सरज़मीं जहाँ की नाज़ुक-मिज़ाज बन कर वो रूठना मचलना सेहन-ए-मकाँ में दिन भर वो कूदना-उछलना अल्लाह-रे वो तख़य्युल अल्लाह-रे साज़-ओ-सामाँ दुनिया की सल्तनत थी इस ज़िंदगी पे क़ुर्बां उस अहद-ए-आफ़यत में इक बार फिर सुला दे ऐ मेरे अहद-ए-माज़ी फिर इक झलक दिखा दे बाग़-ए-जहाँ में रक्खा उन शादियों ने मुझ को राहत की लोरियाँ दीं आज़ादियों ने मुझ को बे-फ़िक्र ज़िंदगी थी ख़ुद होश मुझ को कब था इक कैफ़-ए-बे-ख़ुदी था मस्त-ए-मय-ए-तरब था ऐ उम्र-ए-रफ़्ता तू ने की मुझ से बे-वफाई आ जा पलट के दम भर मैं हूँ तिरा फ़िदाई दिल में शरारतें थीं कैसे ग़ज़ब की पिन्हाँ रग रग में बिजलियाँ थीं जोश-ए-तरब की पिन्हाँ हूँ अपनी ज़िंदगी का अंदाज़ा करने वाला जन्नत से ला के तू ने दोज़ख़ में मुझ को डाला