चले थे लोग जब घर से तो इक वादे की तख़्ती अपनी पेशानी पर रख कर लाए थे जिस की गवाही में सफ़र को आगे बढ़ना था और उस के साथ ख़्वाबों ख़्वाहिशों के नाम उस वीरान घर को आगे बढ़ना था तो इक वादे की तख़्ती थी बहुत दिन तक जो रौशन थी सराबों में पुरानी दास्तानें जागती ताज़ा निसाबों में बहुत दिन तक हवा में संदली ख़ुश्बू महकती थी सफ़र में चाँदनी घर की छिटकती थी चले थे लोग जब घर से बहुत मानूस थे हर गुम-शुदा वीरान मंज़र से चले थे लोग जब घर से पुरानी बात लगती है बहुत सी कड़ियाँ जैसे बीच से अब टूटती जाती हैं रुतें गुज़रीं हुई अब हाथ से यूँ छूटती जाती हैं जैसे आयतें बुझने लगी हों सैल-ए-ज़ुल्मत में वो इक वादे की तख़्ती गुम हुई तूफ़ान-ए-हैरत में बदलने का कोई मौसम नहीं होता बहुत दिन जब बदलने में गुज़र जाते हैं कुछ बदले हुए का ग़म नहीं होता